नोबेल पुरस्कार के लिए नामित बुजुर्ग आदिवासी महिला अपाहिज होकर गरीबी और मुफलिसी की ज़िंदगी जीने को मजबूर

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प्रयागराज—एक कहावत है उगते हुए सूरज को सब सलाम करते है। जिसकी एक आवाज़ में सैकड़ों महिलाओं का हुजूम खड़ा हो जाता रहा हो, प्रशासनिक अधिकारी जिसकी एक आवाज़ में दौड़े चले जाते रहे हो,जो अपनी पूरी जवानी समाजसेवा, महिला उत्पीड़न,लड़कियों की शिक्षा,जल और जंगल की लड़ाई,गरीब आदिवासियों के लिए खनन पट्टे को लेकर शासन और प्रशासन से लड़ाई लड़कर उनका हक दिलाया। इन्ही कार्यो के लिए विश्व के सबसे बड़े सम्मान नोबेल पुरस्कार के लिए नामित और उत्तर प्रदेश का बड़ा सम्मान अवध सम्मान से सम्मानित बुर्जुग आदिवासी महिला आज अपनी ज़िंदगी की लड़ाई में हार गई। आज यही बुजुर्ग आदिवासी महिला अपाहिज होकर गरीबी और मुफलिसी की ज़िंदगी जीने को मजबूर है,शासन प्रशासन भी मुंह फेर लिया।
जी हां हम बात कर रहे प्रयागराज जनपद के यमुनापार इलाके के शंकरगढ़ विकासखंड के एक छोटे से गांव की 85 वर्षीय अनपढ़ और निरक्षर बुजुर्ग आदिवासी महिला दुईजी अम्मा की। जो हमेशा दूसरों के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी निछावर कर दी। दुईजी अम्मा का जन्म बुंदेलखंड के चित्रकूट जनपद के बरगढ़ क्षेत्र के पहाड़ों और जगलो के बीच छोटे से गांव मनिका में एक आदिवासी परिवार में हुआ था। दुईजी अम्मा की कम उम्र में शादी हों गई थी। इनके पति बाबू लाल आदिवासी रोजगार की तलाश में जूही गांव में आकर बस गए थे जो यहां आकर कुछ दिनों तक गिट्टी और पत्थरों के खदानों में मजदूरी करने लगे। कुछ दिनों बाद दुईजी अम्मा के पति बाबू लाल की एक बीमारी में मौत हो गई। दुईजी अम्मा अपने सात बेटे बेटियों को लेकर अकेली हो गईं। जो जूही गांव के जंगलों के बीच झोपड़ी बनाकर रह रही थी और हार न मानते हुए मजदूरी करके अपने बच्चों का भरण पोषण करने लगी।
जैसे जैसे समय बीतता गया बच्चे भी बड़े होते गए लेकिन गरीबी ने साथ नही छोड़ा बच्चे भी पत्थरों के खदानों में मजदूरी करने लगे। लेकिन गांव के सामंतवादी ठीकेदार लोगों द्वारा मेहनत के हिसाब से मजदूरी न मिलने पर आदिवासी मजदूर खुश नही थे। तभी अम्मा ने महिलाओं के एक संगठन महिला समाख्या से जुड़कर खनन पट्टे की लड़ाई की शुरुआत की जिसमे अम्मा को सफलता मिली और शासन प्रशासन ने आदिवासी मजदूरों को खनन पट्टा आवंटित किया। वही से दुईजी अम्मा का हौसला बढ़ा तो समाजसेवा के क्षेत्र में कूद गई।
महिला समाख्या की महिलाओं का साथ मिला तो दुईजी अम्मा ने क्षेत्र ही नही पूरे जनपद की महिलाओं पर हो रहे अत्याचार और उत्पीड़न की लड़ाई लड़ने लगी। दुईजी अम्मा ने हर धर्म की सैकड़ों महिलाओं को उनका हक दिलाया। इनका कारवां बढ़ता गया और बड़ी बड़ी लड़ाई लड़ती गई। उस समय गांव में स्कूल नही था बच्चियों को दूर जाने में दिक्कत होती थी अम्मा ने शासन प्रशासन से लड़ाई लड़कर गांव में प्राइमरी स्कूल खुलवाकर आदिवासी बच्चियों को शिक्षित करने में बड़ा योगदान दिया।उस वक्त गांव के सामंतवादी सोच के लोग आदिवासियों और हरिजनों को गांव के कुंए और हैंडपंपो से पानी नही भरने देते थे तो दुईजी अम्मा ने शासन प्रशासन से गुहार लगाकर आदिवासी हरिजन बस्तियों में कई हैंडपम्प लगवाए। अपने ही गांव के स्कूल में 10 वर्षों तक मध्यान्ह भोजन के लिए रसोइयां का काम करके अपना भरण पोषण करती रही। इसी बीच लगभग 4 वर्ष पहले एक बाइक एक्सीडेंट में पैर में गंभीर चोट आ गई आर्थिक परेशानी के कारण इलाज नही हो सका,जिसके कारण हमेशा के लिए दुईजी अम्मा अपाहिज होकर लाठी के सहारे चलने को मजबूर हो गई। सबसे बड़ी बात सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ भी नही मिल रहा है। आज भी दुईजी अम्मा टीन शेड के नीचे रहने को मजबूर है,आज तक न ही आवास और न ही शौचालय मिला।
इसी समाजसेवा के लिए दुईजी अम्मा को सन 2005 में विश्व के सबसे बड़े सम्मान नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया और सन 2009 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने उत्तर प्रदेश के बड़े सम्मान अवध सम्मान से लखनऊ में सम्मानित किया था। लेकिन आज ये सख्सियत गुमनामी गरीबी और मुफ़लिसी की ज़िंदगी जीने को मजबूर है। सबसे बड़ी बात आज भी इनके बेटे और पोते मजदूरी ही करते हैं।
इनको 2007 में तत्कालीन उपजिलाधिकारी बारा डॉ. विपिन मिश्रा ने शासन के संतुति पर 2 बीघा खेत पट्टा किया था लेकिन आज तक इन्हें ये भी नही मालूम कि शासन द्वारा पट्टा दिया गया खेत कहाँ है। जहाँ शासन प्रशासन द्वारा ऐसी शख्सियत को आर्थिक मदद देनी चाहिए वहां सब भूल गए, लेकिन कुछ सामाजिक संगठनो ने दुईजी अम्मा को हर माह कुछ आर्थिक मदद पहुंचा रहे हैं।
रिपोर्ट
नावेद खान (प्रयागराज)
9120510008, 7905451613
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